जिन्हे हम दर्शनी नाथ जी भी कहते हे, यह एक गुरु शिष्य परमपरागत पद्दती हे,
शिव गोरख सर्वोपरी 1---नए नाथ को चीरा देते समय चीरा धारण करने वाले को चीरा गुरु के समक्ष बेठाया जाता है ! उसके दोनो कर्ण के समक्ष गौ भस्म सूर्य चंद्र नाम दो ढेरियां रखी जाती है ! गौभस्म से चीरे का निशान लगाया जाता है ! ताकि चीरे का जो रक्त है वह उन ढेरियो पर ही पड़ता है ! जो धरती माता मे समाधिस्थ किया जाता है ! 2---- चीरा देने की पद्धती मे चीरा गुरु द्वारा अभिमंत्रण सूर्य एवं चंद्र इसके प्रत्यक्ष साक्षी माने जाते ! इन दो ढेरियो के मध्य चीरा लेने वाले शिष्य के समक्ष भस्म की तीसरी ढेरी भी लगाई जाती है ! जिसमे दो धारी नोकदार छुरी की नोक पृथ्वी की और करके रखी जाती है ! चीरा धारण करने वाला तीन बार करद उठाकर गुरु को चीरा देने का आग्रह करता है ! फिर गुरु उसे योगारम की कठोर साधना एवं तप से अवगत कराते है एवं उसे समझा कर पुनः घर लौटने का आदेश करते है ! 3---अतः योग मार्ग पर चलने की प्रतिज्ञा करने वाले को ही चीरा दिया जाता है ! 4---नए नाथ योगी की इस परम्परा का सबसे पहला प्रयोग महायोगी गुरु गोरख नाथ जी ने राजा भर्तहरी जी पर और फिर जालंधर नाथ जी द्वारा गोपीचंद जी पर किया गया ! इसे धारण करने वाली मुद्रा को शिव की मुद्रा या शिव कुंडल भी कहा जाता है ! 5---अतः इस मुद्रा को धारण करने वाले को दर्शनी साधु कहा जाता है ! दर्शनी योगी शिव की काया यह विश्वास विचार .नाथ सिद्ध परंपरा को आदिमानव की श्रेणी मे स्थापित करता है ! नवे नाथ बनाने के अनुष्ठान मे गायत्री मंत्र जाप आदि का जाप महत्वपूर्ण है ! 6---- कुण्डल नाथसंप्रदाय की और शिव शक्ति की पहचान है ! चीरा देते समय नए नाथ के मुख से दो बार अक्षरध्वनि ”सी” स्वतः मुखरित होती है ! ”सी” बच्चे को जन्म देते ही प्रसूता के मुख से भी मुखरित होती है ! 7---अतः चीरा देकर नया नाथ बनना नए जन्म होने के बराबर माना जाता है ! गंगाजल चीरा विधान के समापन की प्रथा का आवश्यक अंग है ! अतः पृथ्वी गौ , गंगा , गायत्री नाथसंप्रदाय मे स्वाभाविक उदघोष है ! 8----कर्ण भेधन प्रथा सतयुग से चली आ रही है ! यह परंपरा अक्षर को प्रस्फुटित कराने का गुप्त मार्ग है जिसे नाथ संप्रदाय ने अधिकाधिक मुखरित कर दिया है ! अक्षर को गुप्त व प्रकट करने को ही शिवगोरख गुरुमंत्र के रूप मे निर्धारित किया गया है ! ब्रम्हांड की समस्त ध्वनिया इसी मे उत्पन्न होकर इसी मे लींन होजाती है ! -------------------------------------------------------------------- गुरु भी करते हैं इन्हें प्रणाम साधनारत योगी में गुरु गोरखनाथ की छवि होती है। तभी नाथ सिद्धों ने फरमाया है कि दर्शनी योगी शिव की काया। लिहाजा जिस गुरु ने उनका कर्ण भेदन करते हुए दीक्षा दी है। उनको भी 40 दिन तक अपने चेले का (आदेश) नमस्कार करने की परंपरा है। बरसों से ये ही परंपरा है।। कबूतर के पंख से लगाते हैं तेल दीक्षा के समय चीरा लगाने के बाद हर दिन कान की धुलाई नीम की पत्तियों में उबले पानी से होती है। उस पर नीम की पत्ती डालकर पकाए गए सरसों का तेल कबूतर के पंख से लगाया जाता है। ताकि घाव वक्त के साथ भरता रहे। -------------------------------------------------------------------- साधना खंडित होने पर संप्रदाय से बाहर कर्ण भेदन के बाद योगी को जख्मी कानों का पूरा ख्याल रखना होता है। इसीलिए भी वे 40 दिन तक दिन-रात जागरण करते हैं। बोलने, सुनने, देखने से बचते हैं। क्योंकि किसी भी स्थिति में दबने से कान खंडित मानते हुए साधक को हमेशा के लिए नाथ संप्रदाय से बहिष्कृत कर दिया जाता है। 12वें दिन योगी पहनेंगे कुंडल सारी क्रियाएं साधक आत्मज्ञान की ओर ले जाने वाली हैं। इसमें इंद्रियों पर लगाम लगती है। 40वें दिन साबर मंत्र से तपस्या रत साधक कराई जाती है। 12वें दिन कुंडल पहनाने का संस्कार बनेगा। -------------------------------------------------------------------- ****जब से सृष्टि तब से नाथ**** नाथ संप्रदाय में सतयुग से चली आ रही परंपरा है। की कर्णभेदन संस्कार करते समय अगर दीक्षित का कान कट जाए। तो वह खंडित मूर्ति मानी जाती है और उसे जिंदा समाधि दी जाती है ऐसी परंपरा रही है।क्योंकि खंडित मूर्ति को जीने का कोई अधिकार नहीं और नाथ संप्रदाय हमेशा उसका बहिष्कार करता है नाथ संप्रदाय भगवान शिव का उपासक है। यहां योगी बनने के लिए दीक्षा में कर्णभेदन संस्कार होता है। इसमें मिट्टी के बनाए कुंडल कान में पहनाए जाते हैं। एक वर्ष इसे धारण करने के बाद योगी पत्थर, पीतल या चांदी के कुंडल पहने के लिए स्वतंत्र रहता है। मगर मृत्यु उपरांत समाधि देते वक्त दोबारा मिट्टी के कुंडल ही पहनाए जाते हैं। परंपरा यह भी है कि यदि कुंडल पहने योगी का कान कट जाए उसे जिंदा समाधि दे दी जाती है। हालांकि बीते कई दशकों में ऐसा नहीं हुआ है। योगी बनने के लिए कठिन साधना : मान्यता है कुंडल पहनने से श्रवण शक्ति बढ़ती है। योगी बनने को कठिन साधना करना पड़ती है। 40 दिन परदे में रहना पड़ता है। 9 दिन नहाए बगैर अघोरी क्रिया करना पड़ती है। गुरु जो भी भोजन परोसे वो ही ग्रहण करना होता है। ये सब करने के बाद ही दीक्षा प्रदान की जाती है। पंथ के सभी योगी एक-दूसरे का अभिवादन आदेश कहकर करते हैं। जवाब भी आदेश में मिलता है। सभी का मत है कि शिव या आदिश्वर के आदेश से सृष्टि की रचना हुई और दुनिया चल रही है। इसलिए आदेश शब्द ही अभिवादन में उपयोग किया जाता है। प्रथम चीरा महायोगी गुरु दादा मच्छैन्दर नाथ जी ने भगवान आदिनाथ जी से नाथ का स्वरूप देने को कहा। तब भगवान शिव जी ने आदिशक्ति से दो कुंडल प्रकट करने को कहा। जिसे साक्षात शिव शक्ति का ही प्रतीक माना जाता है। और इसमें शिव और शक्ति का वास होता है। यह कुंडल भगवान शिव ने दादा गुरु मच्छैन्दर नाथ जी को चीरा देकर कुंडल कानों में डाल दिए। यह नाथ जी का स्वरुप भगवान शिव ने दादा गुरु मच्छैन्दर नाथ जी को दिया । मच्छैन्दर नाथ जी ने महायोगी गुरु गोरक्षनाथ जी को। महायोगी गुरु गोरक्षनाथ ने राजा भृतृहरि को । यह प्रथा तब से गुरु शिष्य के रूप में चलती आ रही है। जो आज दिन तक चला आ रहा है। बिना कुंडल योगी औघड़ कहलाता है। और उनका आधा मान होता है। कुंडल धारण करने के बाद ही पूर्ण रूप से योगी एवं तपस्वी बनता है। चाँद सूरज की मुद्रा पहनी धरण भस्म जल थाला है ! नादी बिन्दी सिंगी अकाशी अलख गुरां जी का बाला है ! ओउम् अलख आदेश ओउम् शिव गोरक्ष,, जय श्री महाकाल आदेश आदेश ।। कलम धर्मेद्र नाथ योगी पचोर,